Chapter 18: चुनौती हिमालय की
Chapter Summary
चुनौती हिमालय की - Chapter Summary
## यात्रा की शुरुआत
जोजिला पास से आगे चलकर जवाहरलाल मातायन पहुंचे तो वहां के नवयुवक कुली ने बताया कि सामने बर्फ से ढके पहाड़ के पीछे अमरनाथ की गुफा है। किशन ने कुली की बात काटते हुए कहा कि रास्ता बहुत टेढ़ा है, बहुत चढ़ाई है और दूर भी है। कुली ने बताया कि अमरनाथ आठ मील दूर है। यह सुनकर जवाहरलाल ने अपने चचेरे भाई की ओर प्रशंसूचक दृष्टि डाली और कहा कि वे जरूर चलेंगे। दोनों कश्मीर घूमने निकले थे और जोजिला पास से होकर लद्दाखी इलाके की ओर चले आए थे। अब अमरनाथ जाने में क्या आपत्ति हो सकती थी।
## यात्रा की तैयारी
रास्ते की मुश्किलों के बारे में सुनकर जवाहरलाल सफर के लिए और भी उत्सुक हो गए। किशन ने कहा कि वह चलेगा और भेड़ें चराने उसकी बेटी चली जाएगी। अगले दिन सुबह तड़के तैयार होकर जवाहरलाल बाहर आ गए। आकाश में रात्रि की कालिमा पर प्रात: की लालिमा फैलती जा रही थी। तिब्बती पठार का दृश्य निराला था। दूर-दूर तक वनस्पति-रहित उजाड़ चट्टानी इलाका दिखाई दे रहा था।
## प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन
उदास, फीके, बर्फ से ढके चट्टानी पहाड़ सुबह की पहली किरणों का स्पर्श पाकर ताज की भांति चमक उठे। दूर से छोटे-छोटे ग्लेशियर ऐसे लगते, मानो स्वर्गत करने के लिए पास सरकते आ रहे हों। सर्द हवा के झोंके हड्डियों तक ठंडक पहुंचा रहे थे।
## यात्रा का आरंभ
जवाहर ने हथेलियां आपस में रगड़कर गर्म कीं और कमर में रस्सी लपेटकर चलने को तैयार हो गए। हिमालय की दुर्गम पर्वतमाला मुंह उठाए चुनौती दे रही थी। जवाहर इस चुनौती को कैसे न स्वीकार करते। भाई, किशन और कुली सभी रस्सी के साथ जुड़े थे। किशन गड्डेरिया अब गाइड बन गया।
## पहली चुनौतियां
केवल आठ मील ही तो पार करने थे। जोश में आकर जवाहरलाल चढ़ाई चढ़ने लगे। यूं आठ मील की दूरी कोई बहुत नहीं होती। लेकिन इन पहाड़ी रास्तों पर आठ कदम चलना दूभर हो गया। एक-एक डग भरने में कठिनाई हो रही थी। रास्ता बहुत ही वीरान था। पेड़-पौधों की हरियाली के अभाव में एक अजीब खालीपन-सा महसूस हो रहा था।
## मौसम की मार
कहीं एक फूल दिख जाता तो आंखों को ठंडक मिल जाती। दिख रही थीं सिर्फ पथरीली चट्टानें और सफेद बर्फ। फिर भी इस गहरे सन्नाटे में बहुत सुकून था। एक ओर सूं-सूं करती बर्फीली हवा बदन को काटती तो दूसरी ओर ताजगी और स्फूर्ति भी देती।
## ऊंचाई की समस्याएं
जवाहरलाल बढ़ते जा रहे थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गए, त्यों-त्यों सांस लेने में दिक्कत होने लगी। एक कुली की नाक से खून बहने लगा। जल्दी से जवाहरलाल ने उसका उपचार किया। खुद उन्हें भी कनपटी की नसों में तनाव महसूस हो रहा था, लगता था जैसे दिमाग में खून चढ़ आया हो। फिर भी जवाहरलाल ने आगे बढ़ने का इरादा नहीं बदला।
## बर्फबारी और कठिनाइयां
थोड़ी देर में बर्फ पड़ने लगी। फिसलन बढ़ गई, चलना भी कठिन हो गया। एक तरफ थकान, ऊपर से सीधी चढ़ाई। तभी सामने एक बर्फीला मैदान नजर आया। चारों ओर हिम शिखरों से घिरा वह मैदान देवताओं के मुकुट के समान लग रहा था। प्रकृति की कैसी मनोहर छटा थी आंखों और मन को तरोताजा कर गई। बस एक झलक दिखाकर बर्फ के धुंधलके में ओझल हो गई।
## ऊंचाई पर पहुंचना
दिन के बारह बजने वाले थे। सुबह चार बजे से वे लोग लगातार चढ़ाई कर रहे थे। शायद सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर होंगे इस वक्त - अमरनाथ स्वागत करने के लिए पास सरकते आ रहे हों। सर्द हवा के झोंके हड्डियों तक ठंडक पहुंचा रहे थे।
## हिमालय की चुनौती का स्वीकार
जवाहर ने हथेलियां आपस में रगड़कर गर्म की और कमर में रस्सी लपेटकर चलने को तैयार हो गए। हिमालय की दुर्गम पर्वतमाला मुंह उठाए चुनौती दे रही थी। जवाहर इस चुनौती को कैसे न स्वीकार करते। भाई, किशन और कुली सभी रस्सी के साथ जुड़े थे। किशन गड्डेरिया अब गाइड बन गया।
## बर्फीले मैदान की चुनौती
बस आठ मील ही तो पार करने हैं। जोश में आकर जवाहरलाल चढ़ाई चढ़ने लगे। यूं आठ मील की दूरी कोई बहुत नहीं होती। लेकिन इन पहाड़ी रास्तों पर आठ कदम चलना दूभर हो गया। सामने बर्फ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुंचा जा सकता था।
## खतरनाक रास्ता
जवाहरलाल फुर्ती से बढ़ते जा रहे थे। दूर से मैदान जितना सपाट दिख रहा था असलियत में उतना ही उबड़-खाबड़ था। ताजी बर्फ ने ऊंची-नीची चट्टानों को एक पतली चादर से ढकर एक समान कर दिया था। गहरी खाइयां थीं, गड्ढे बर्फ से ढके हुए थे और गजब की फिसलन थी। कभी पैर फिसलता और कभी बर्फ में पैर अंदर धंसता जाता।
## दुर्घटना
बहुत नाप-नापकर कदम रखने पड़ रहे थे। यह तो चढ़ाई से भी मुश्किल था, पर जवाहरलाल को मजा आ रहा था। तभी जवाहरलाल ने देखा सामने एक गहरी खाई मुंह फाड़े निगलने के लिए तैयार थी। अचानक उनका पैर फिसला। वे लड़खड़ाए और इससे पहले कि संभल पाएं वे खाई में गिर पड़े।
## खाई में गिरना
"शाब --- गिर गए!" किशन चीखा। "जवाहर ---!" भाई की पुकार वादियों की शांति भंग कर गई। वे खाई की ओर तेजी से बढ़े। रस्सी से बंधे जवाहरलाल हवा में लटक रहे थे। उफ, कैसा झटका लगा। दोनों तरफ चट्टानें-ही-चट्टानें, नीचे गहरी खाई। जवाहरलाल कसकर रस्सी पकड़े थे, वही उनका एकमात्र सहारा था।
## रस्सी से लटकना
से भी ऊपर। पर अमरनाथ की गुफा का दूर-दूर तक पता नहीं था। इस पर भी जवाहरलाल की चाल में न ढीलापन था, न बदन में सुस्ती। हिमालय ने चुनौती जो दी थी। निर्गम पथ पार करने का उत्साह उन्हें आगे खींच रहा था।
## बचाव का प्रयास
"शाब, लौट चलिए। वापस कैंप में पहुंचते-पहुंचते दिन ढल जाएगा," एक कुली ने कहा। "लेकिन अभी तो अमरनाथ पहुंचे नहीं।" जवाहरलाल को लौटने का विचार पसंद नहीं आया। सामने बर्फ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुंचा जा सकता था।
## कठिन परिस्थिति
"शाब, लौट चलिए। वापस कैंप में पहुंचते-पहुंचते दिन ढल जाएगा," एक कुली ने कहा। "लेकिन अभी तो अमरनाथ पहुंचे नहीं।" जवाहरलाल को लौटने का विचार पसंद नहीं आया। "वह तो दूर बर्फ के उस मैदान के पार है," किशन बीच में बोल पड़ा। "चलो, चलो। चढ़ाई तो पार कर ली, अब आधे मील का मैदान ही तो बाकी है," कहकर जवाहरलाल ने थके हुए कुलियों को उत्साहित किया।
## रस्सी की सहायता से बचना
सामने बर्फ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुंचा जा सकता था। जवाहरलाल फुर्ती से बढ़ते जा रहे थे। दूर से मैदान जितना सपाट दिख रहा था असलियत में उतना ही उबड़-खाबड़ था। ताजी बर्फ ने ऊंची-नीची चट्टानों को एक पतली चादर से ढकर एक समान कर दिया था।
## रस्सी से निकलना
"जवाहर---!" ऊपर से भाई की पुकार सुनाई दी। मुंह ऊपर उठाया तो भाई और किशन के धुंधले चेहरे खाई में झांकते हुए दिखाई दिए। "हम खींच रहे हैं, रस्सी कस के पकड़े रहना," भाई ने हिदायत दी। जवाहरलाल जानते थे कि फिसलन के कारण यूं ऊपर खींच लेना आसान नहीं होगा। "भाई, मैं चट्टान पर पैर जमा लूं," वह चिल्लाए।
## वापसी की मजबूरी
खाई की दीवारों से उनकी आवाज टकराकर दूर-दूर तक गूंज गई। हल्की-सी पेंग बढ़ा जवाहरलाल ने खाई की दीवार से उभरी चट्टान को मजबूती से पकड़ लिया और पथरीले धरातल पर पैर जमा लिए। पैरों तले धरती के एहसास से जवाहरलाल की हिम्मत बढ़ गई। "घबराना मत, जवाहर," भाई की आवाज सुनाई दी। "मैं बिल्कुल ठीक हूं," कहकर जवाहरलाल मजबूती से रस्सी पकड़ एक-एक कदम ऊपर की ओर बढ़ने लगे।
## सफर की समाप्ति
कभी पैर फिसलता, कभी कोई हल्का-फुल्का पत्थर पैरों के नीचे से सरक जाता, तो वे मन-ही-मन कांप जाते और मजबूती से रस्सी पकड़ लेते। रस्सी से हथेलियां भी जैसे कटने लगी थीं पर जवाहरलाल ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। कुली और किशन उन्हें खींचकर बार-बार ऊपर चढ़ने में मदद कर रहे थे। धीरे-धीरे सरकर किसी तरह जवाहरलाल ऊपर पहुंचे।
## हार न मानना
आगे चलकर इस तरह की गहरी और चौड़ी खाइयों की तादाद बहुत थी। खाइयां पार करने का उचित सामान भी तो नहीं था। निराश होकर जवाहरलाल को अमरनाथ तक का सफर अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। अमरनाथ पहुंचने का सपना तो पूरा न हो सका पर हिमालय की ऊंचाइयां सदा जवाहरलाल को आकर्षित करती रहीं।
## लेखक परिचय
सुरेखा पणदीकर
## मुख्य पात्र और स्थान
जवाहरलाल तक का सफर अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। अमरनाथ पहुंचने का सपना तो पूरा न हो सका पर हिमालय की ऊंचाइयां सदा जवाहरलाल को आकर्षित करती रहीं।
## नए शब्दों की परिभाषा
| शब्द | अर्थ (English) |
|------|-------------|
| अमरनाथ | Amarnath (famous cave temple) |
| गुफा | Cave |
| मातायन | A place name |
| कुली | Porter/laborer |
| चचेरे भाई | Cousin |
| प्रशंसूचक | Appreciative |
| लद्दाखी | Related to Ladakh |
| गड्डेरिया | Shepherd |
| वीरान | Desolate/deserted |
| सन्नाटा | Complete silence |
| फिसलन | Slippery condition |
| कनपटी | Temple (part of head) |
| ग्लेशियर | Glacier |
| दुर्गम | Difficult to access |
| पर्वतमाला | Mountain range |
| झोंके | Gusts (of wind) |
| उबड़-खाबड़ | Uneven/rough |
| निर्गम | Exit/way out |
| स्फूर्ति | Energy/vigor |
---
title: "हम क्या उगाते हैं"
description: "हेनरी एबे की प्रसिद्ध कविता 'हम क्या उगाते हैं' का हिंदी अनुवाद। पेड़ों के महत्व और उनसे मिलने वाले लाभों का काव्यात्मक चित्रण।"
keywords: "हम क्या उगाते हैं, पेड़ लगाना, पर्यावरण, वन संरक्षण, हेनरी एबे, कबीर वाजपेयी, जहाज निर्माण, घर निर्माण"
subject: "hindi"
slug: "hum-kya-ugate-hai"
---
# हम क्या उगाते हैं
## जहाज का निर्माण
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
हम पानी का जहाज उगाते हैं जो समुद्र पार करेगा।
हम मस्तूल उगाते हैं जिसपर पाल बांधेंगे।
हम वे फट्टे उगाते हैं जो हवा के थपेड़ों का सामना करेंगे।
**जहाज का तला, शहतीर, कोहनी;**
हम पानी का जहाज उगाते हैं जब पेड़ उगाते हैं।
## घर का निर्माण
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
हम बल्लियां, पटिये और फर्श उगाते हैं।
हम खिड़की, रोशनदान और दरवाजे उगाते हैं।
हम छत के लट्टे, शहतीर और उसके तमाम हिस्से उगाते हैं।
हम घर उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।
## विविध उपयोग
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
ऐसी हजारों चीजें जो हम हर दिन देखते हैं।
हम गुंबद से भी ऊपर आने वाले शिखर उगाते हैं।
हम अपने देश का झंडा फहराने वाला स्तंभ उगाते हैं।
सूरज की गर्मी से छाया मानो मुफ्त ही उगाते हैं।
हम यह सब उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।
## कविता का मुख्य संदेश
यह कविता पेड़ों के महत्व को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। कवि हेनरी एबे बताते हैं कि जब हम पेड़ लगाते हैं तो हम सिर्फ पौधे नहीं लगाते, बल्कि भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने वाली वस्तुओं को उगाते हैं।
### मुख्य विषय:
**पेड़ों से जहाज निर्माण**: पेड़ों की लकड़ी से जहाज बनाए जाते हैं जो समुद्री यात्रा और व्यापार में उपयोग होते हैं। मस्तूल, पाल, फट्टे और जहाज के अन्य हिस्से लकड़ी से ही बनते हैं।
**पेड़ों से घर निर्माण**: लकड़ी से घर के मुख्य हिस्से बनाए जाते हैं - बल्लियां, पटिये, फर्श, खिड़कियां, दरवाजे और छत के लट्टे।
**अन्य महत्वपूर्ण उपयोग**: पेड़ों से झंडे के लिए स्तंभ बनाए जाते हैं। वे हमें मुफ्त छाया प्रदान करते हैं।
### काव्य शिल्प की विशेषताएं:
- **प्रश्न-उत्तर शैली**: कविता में बार-बार प्रश्न पूछा गया है - "हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?"
- **दोहराव**: मुख्य पंक्ति को दोहराकर जोर दिया गया है
- **व्यावहारिक दृष्टिकोण**: पेड़ों के व्यावहारिक उपयोग पर जोर
- **सकारात्मक संदेश**: पेड़ लगाने के लिए प्रेरणा
## कवि और अनुवादक परिचय
**मूल कवि**: हेनरी एबे
**अनुवादक**: कबीर वाजपेयी
कबीर वाजपेयी ने इस अंग्रेजी कविता का बहुत सुंदर हिंदी अनुवाद किया है जो मूल भाव को बनाए रखता है।
## नए शब्दों की परिभाषा
| शब्द | अर्थ (English) |
|------|-------------|
| मस्तूल | Mast (pole on ship for sails) |
| पाल | Sail (fabric to catch wind) |
| फट्टे | Wooden planks |
| शहतीर | Beam (supporting timber) |
| कोहनी | Elbow joint (ship part) |
| बल्लियां | Wooden logs/beams |
| पटिये | Wooden boards |
| रोशनदान | Skylight/ventilator |
| लट्टे | Wooden strips |
| गुंबद | Dome |
| स्तंभ | Pillar/flagpole |
| छाया | Shadow/shade |
| थपेड़े | Strong winds/gusts |
| तला | Bottom/base |
चुनौती हिमालय की - संपूर्ण सारांश
यात्रा की शुरुआत
जोजिला पास से आगे चलकर जवाहरलाल मातायन पहुंचे तो वहां के नवयुवक कुली ने बताया कि सामने बर्फ से ढके पहाड़ के पीछे अमरनाथ की गुफा है। किशन ने कुली की बात काटते हुए कहा कि रास्ता बहुत टेढ़ा है, बहुत चढ़ाई है और दूर भी है। कुली ने बताया कि अमरनाथ आठ मील दूर है। यह सुनकर जवाहरलाल ने अपने चचेरे भाई की ओर प्रशंसूचक दृष्टि डाली और कहा कि वे जरूर चलेंगे। दोनों कश्मीर घूमने निकले थे और जोजिला पास से होकर लद्दाखी इलाके की ओर चले आए थे। अब अमरनाथ जाने में क्या आपत्ति हो सकती थी।
यात्रा की तैयारी
रास्ते की मुश्किलों के बारे में सुनकर जवाहरलाल सफर के लिए और भी उत्सुक हो गए। किशन ने कहा कि वह चलेगा और भेड़ें चराने उसकी बेटी चली जाएगी। अगले दिन सुबह तड़के तैयार होकर जवाहरलाल बाहर आ गए। आकाश में रात्रि की कालिमा पर प्रात: की लालिमा फैलती जा रही थी। तिब्बती पठार का दृश्य निराला था। दूर-दूर तक वनस्पति-रहित उजाड़ चट्टानी इलाका दिखाई दे रहा था।
प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन
उदास, फीके, बर्फ से ढके चट्टानी पहाड़ सुबह की पहली किरणों का स्पर्श पाकर ताज की भांति चमक उठे। दूर से छोटे-छोटे ग्लेशियर ऐसे लगते, मानो स्वर्गत करने के लिए पास सरकते आ रहे हों। सर्द हवा के झोंके हड्डियों तक ठंडक पहुंचा रहे थे।
यात्रा का आरंभ
जवाहर ने हथेलियां आपस में रगड़कर गर्म कीं और कमर में रस्सी लपेटकर चलने को तैयार हो गए। हिमालय की दुर्गम पर्वतमाला मुंह उठाए चुनौती दे रही थी। जवाहर इस चुनौती को कैसे न स्वीकार करते। भाई, किशन और कुली सभी रस्सी के साथ जुड़े थे। किशन गड्डेरिया अब गाइड बन गया।
पहली चुनौतियां
केवल आठ मील ही तो पार करने थे। जोश में आकर जवाहरलाल चढ़ाई चढ़ने लगे। यूं आठ मील की दूरी कोई बहुत नहीं होती। लेकिन इन पहाड़ी रास्तों पर आठ कदम चलना दूभर हो गया। एक-एक डग भरने में कठिनाई हो रही थी। रास्ता बहुत ही वीरान था। पेड़-पौधों की हरियाली के अभाव में एक अजीब खालीपन-सा महसूस हो रहा था।
मौसम की मार
कहीं एक फूल दिख जाता तो आंखों को ठंडक मिल जाती। दिख रही थीं सिर्फ पथरीली चट्टानें और सफेद बर्फ। फिर भी इस गहरे सन्नाटे में बहुत सुकून था। एक ओर सूं-सूं करती बर्फीली हवा बदन को काटती तो दूसरी ओर ताजगी और स्फूर्ति भी देती।
ऊंचाई की समस्याएं
जवाहरलाल बढ़ते जा रहे थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गए, त्यों-त्यों सांस लेने में दिक्कत होने लगी। एक कुली की नाक से खून बहने लगा। जल्दी से जवाहरलाल ने उसका उपचार किया। खुद उन्हें भी कनपटी की नसों में तनाव महसूस हो रहा था, लगता था जैसे दिमाग में खून चढ़ आया हो। फिर भी जवाहरलाल ने आगे बढ़ने का इरादा नहीं बदला।
बर्फबारी और कठिनाइयां
थोड़ी देर में बर्फ पड़ने लगी। फिसलन बढ़ गई, चलना भी कठिन हो गया। एक तरफ थकान, ऊपर से सीधी चढ़ाई। तभी सामने एक बर्फीला मैदान नजर आया। चारों ओर हिम शिखरों से घिरा वह मैदान देवताओं के मुकुट के समान लग रहा था। प्रकृति की कैसी मनोहर छटा थी आंखों और मन को तरोताजा कर गई। बस एक झलक दिखाकर बर्फ के धुंधलके में ओझल हो गई।
ऊंचाई पर पहुंचना
दिन के बारह बजने वाले थे। सुबह चार बजे से वे लोग लगातार चढ़ाई कर रहे थे। शायद सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर होंगे इस वक्त - अमरनाथ स्वागत करने के लिए पास सरकते आ रहे हों। सर्द हवा के झोंके हड्डियों तक ठंडक पहुंचा रहे थे।
हिमालय की चुनौती का स्वीकार
जवाहर ने हथेलियां आपस में रगड़कर गर्म की और कमर में रस्सी लपेटकर चलने को तैयार हो गए। हिमालय की दुर्गम पर्वतमाला मुंह उठाए चुनौती दे रही थी। जवाहर इस चुनौती को कैसे न स्वीकार करते। भाई, किशन और कुली सभी रस्सी के साथ जुड़े थे। किशन गड्डेरिया अब गाइड बन गया।
बर्फीले मैदान की चुनौती
बस आठ मील ही तो पार करने हैं। जोश में आकर जवाहरलाल चढ़ाई चढ़ने लगे। यूं आठ मील की दूरी कोई बहुत नहीं होती। लेकिन इन पहाड़ी रास्तों पर आठ कदम चलना दूभर हो गया। सामने बर्फ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुंचा जा सकता था।
खतरनाक रास्ता
जवाहरलाल फुर्ती से बढ़ते जा रहे थे। दूर से मैदान जितना सपाट दिख रहा था असलियत में उतना ही उबड़-खाबड़ था। ताजी बर्फ ने ऊंची-नीची चट्टानों को एक पतली चादर से ढकर एक समान कर दिया था। गहरी खाइयां थीं, गड्ढे बर्फ से ढके हुए थे और गजब की फिसलन थी। कभी पैर फिसलता और कभी बर्फ में पैर अंदर धंसता जाता।
दुर्घटना
बहुत नाप-नापकर कदम रखने पड़ रहे थे। यह तो चढ़ाई से भी मुश्किल था, पर जवाहरलाल को मजा आ रहा था। तभी जवाहरलाल ने देखा सामने एक गहरी खाई मुंह फाड़े निगलने के लिए तैयार थी। अचानक उनका पैर फिसला। वे लड़खड़ाए और इससे पहले कि संभल पाएं वे खाई में गिर पड़े।
खाई में गिरना
"शाब --- गिर गए!" किशन चीखा। "जवाहर ---!" भाई की पुकार वादियों की शांति भंग कर गई। वे खाई की ओर तेजी से बढ़े। रस्सी से बंधे जवाहरलाल हवा में लटक रहे थे। उफ, कैसा झटका लगा। दोनों तरफ चट्टानें-ही-चट्टानें, नीचे गहरी खाई। जवाहरलाल कसकर रस्सी पकड़े थे, वही उनका एकमात्र सहारा था।
रस्सी से लटकना
से भी ऊपर। पर अमरनाथ की गुफा का दूर-दूर तक पता नहीं था। इस पर भी जवाहरलाल की चाल में न ढीलापन था, न बदन में सुस्ती। हिमालय ने चुनौती जो दी थी। निर्गम पथ पार करने का उत्साह उन्हें आगे खींच रहा था।
बचाव का प्रयास
"शाब, लौट चलिए। वापस कैंप में पहुंचते-पहुंचते दिन ढल जाएगा," एक कुली ने कहा। "लेकिन अभी तो अमरनाथ पहुंचे नहीं।" जवाहरलाल को लौटने का विचार पसंद नहीं आया। सामने बर्फ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुंचा जा सकता था।
कठिन परिस्थिति
"शाब, लौट चलिए। वापस कैंप में पहुंचते-पहुंचते दिन ढल जाएगा," एक कुली ने कहा। "लेकिन अभी तो अमरनाथ पहुंचे नहीं।" जवाहरलाल को लौटने का विचार पसंद नहीं आया। "वह तो दूर बर्फ के उस मैदान के पार है," किशन बीच में बोल पड़ा। "चलो, चलो। चढ़ाई तो पार कर ली, अब आधे मील का मैदान ही तो बाकी है," कहकर जवाहरलाल ने थके हुए कुलियों को उत्साहित किया।
रस्सी की सहायता से बचना
सामने बर्फ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुंचा जा सकता था। जवाहरलाल फुर्ती से बढ़ते जा रहे थे। दूर से मैदान जितना सपाट दिख रहा था असलियत में उतना ही उबड़-खाबड़ था। ताजी बर्फ ने ऊंची-नीची चट्टानों को एक पतली चादर से ढकर एक समान कर दिया था।
रस्सी से निकलना
"जवाहर---!" ऊपर से भाई की पुकार सुनाई दी। मुंह ऊपर उठाया तो भाई और किशन के धुंधले चेहरे खाई में झांकते हुए दिखाई दिए। "हम खींच रहे हैं, रस्सी कस के पकड़े रहना," भाई ने हिदायत दी। जवाहरलाल जानते थे कि फिसलन के कारण यूं ऊपर खींच लेना आसान नहीं होगा। "भाई, मैं चट्टान पर पैर जमा लूं," वह चिल्लाए।
वापसी की मजबूरी
खाई की दीवारों से उनकी आवाज टकराकर दूर-दूर तक गूंज गई। हल्की-सी पेंग बढ़ा जवाहरलाल ने खाई की दीवार से उभरी चट्टान को मजबूती से पकड़ लिया और पथरीले धरातल पर पैर जमा लिए। पैरों तले धरती के एहसास से जवाहरलाल की हिम्मत बढ़ गई। "घबराना मत, जवाहर," भाई की आवाज सुनाई दी। "मैं बिल्कुल ठीक हूं," कहकर जवाहरलाल मजबूती से रस्सी पकड़ एक-एक कदम ऊपर की ओर बढ़ने लगे।
सफर की समाप्ति
कभी पैर फिसलता, कभी कोई हल्का-फुल्का पत्थर पैरों के नीचे से सरक जाता, तो वे मन-ही-मन कांप जाते और मजबूती से रस्सी पकड़ लेते। रस्सी से हथेलियां भी जैसे कटने लगी थीं पर जवाहरलाल ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। कुली और किशन उन्हें खींचकर बार-बार ऊपर चढ़ने में मदद कर रहे थे। धीरे-धीरे सरकर किसी तरह जवाहरलाल ऊपर पहुंचे।
हार न मानना
आगे चलकर इस तरह की गहरी और चौड़ी खाइयों की तादाद बहुत थी। खाइयां पार करने का उचित सामान भी तो नहीं था। निराश होकर जवाहरलाल को अमरनाथ तक का सफर अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। अमरनाथ पहुंचने का सपना तो पूरा न हो सका पर हिमालय की ऊंचाइयां सदा जवाहरलाल को आकर्षित करती रहीं।
लेखक परिचय
सुरेखा पणदीकर
मुख्य पात्र और स्थान
जवाहरलाल तक का सफर अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। अमरनाथ पहुंचने का सपना तो पूरा न हो सका पर हिमालय की ऊंचाइयां सदा जवाहरलाल को आकर्षित करती रहीं।
नए शब्दों की परिभाषा
शब्द | अर्थ (English) |
---|---|
अमरनाथ | Amarnath (famous cave temple) |
गुफा | Cave |
मातायन | A place name |
कुली | Porter/laborer |
चचेरे भाई | Cousin |
प्रशंसूचक | Appreciative |
लद्दाखी | Related to Ladakh |
गड्डेरिया | Shepherd |
वीरान | Desolate/deserted |
सन्नाटा | Complete silence |
फिसलन | Slippery condition |
कनपटी | Temple (part of head) |
ग्लेशियर | Glacier |
दुर्गम | Difficult to access |
पर्वतमाला | Mountain range |
झोंके | Gusts (of wind) |
उबड़-खाबड़ | Uneven/rough |
निर्गम | Exit/way out |
स्फूर्ति | Energy/vigor |
title: "हम क्या उगाते हैं" description: "हेनरी एबे की प्रसिद्ध कविता 'हम क्या उगाते हैं' का हिंदी अनुवाद। पेड़ों के महत्व और उनसे मिलने वाले लाभों का काव्यात्मक चित्रण।" keywords: "हम क्या उगाते हैं, पेड़ लगाना, पर्यावरण, वन संरक्षण, हेनरी एबे, कबीर वाजपेयी, जहाज निर्माण, घर निर्माण" subject: "hindi" slug: "hum-kya-ugate-hai"
हम क्या उगाते हैं
जहाज का निर्माण
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं? हम पानी का जहाज उगाते हैं जो समुद्र पार करेगा। हम मस्तूल उगाते हैं जिसपर पाल बांधेंगे। हम वे फट्टे उगाते हैं जो हवा के थपेड़ों का सामना करेंगे।
जहाज का तला, शहतीर, कोहनी;
हम पानी का जहाज उगाते हैं जब पेड़ उगाते हैं।
घर का निर्माण
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं? हम बल्लियां, पटिये और फर्श उगाते हैं। हम खिड़की, रोशनदान और दरवाजे उगाते हैं। हम छत के लट्टे, शहतीर और उसके तमाम हिस्से उगाते हैं।
हम घर उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।
विविध उपयोग
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं? ऐसी हजारों चीजें जो हम हर दिन देखते हैं। हम गुंबद से भी ऊपर आने वाले शिखर उगाते हैं। हम अपने देश का झंडा फहराने वाला स्तंभ उगाते हैं। सूरज की गर्मी से छाया मानो मुफ्त ही उगाते हैं।
हम यह सब उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।
कविता का मुख्य संदेश
यह कविता पेड़ों के महत्व को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। कवि हेनरी एबे बताते हैं कि जब हम पेड़ लगाते हैं तो हम सिर्फ पौधे नहीं लगाते, बल्कि भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने वाली वस्तुओं को उगाते हैं।
मुख्य विषय:
पेड़ों से जहाज निर्माण: पेड़ों की लकड़ी से जहाज बनाए जाते हैं जो समुद्री यात्रा और व्यापार में उपयोग होते हैं। मस्तूल, पाल, फट्टे और जहाज के अन्य हिस्से लकड़ी से ही बनते हैं।
पेड़ों से घर निर्माण: लकड़ी से घर के मुख्य हिस्से बनाए जाते हैं - बल्लियां, पटिये, फर्श, खिड़कियां, दरवाजे और छत के लट्टे।
अन्य महत्वपूर्ण उपयोग: पेड़ों से झंडे के लिए स्तंभ बनाए जाते हैं। वे हमें मुफ्त छाया प्रदान करते हैं।
काव्य शिल्प की विशेषताएं:
- प्रश्न-उत्तर शैली: कविता में बार-बार प्रश्न पूछा गया है - "हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?"
- दोहराव: मुख्य पंक्ति को दोहराकर जोर दिया गया है
- व्यावहारिक दृष्टिकोण: पेड़ों के व्यावहारिक उपयोग पर जोर
- सकारात्मक संदेश: पेड़ लगाने के लिए प्रेरणा
कवि और अनुवादक परिचय
मूल कवि: हेनरी एबे
अनुवादक: कबीर वाजपेयी
कबीर वाजपेयी ने इस अंग्रेजी कविता का बहुत सुंदर हिंदी अनुवाद किया है जो मूल भाव को बनाए रखता है।
नए शब्दों की परिभाषा
शब्द | अर्थ (English) |
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मस्तूल | Mast (pole on ship for sails) |
पाल | Sail (fabric to catch wind) |
फट्टे | Wooden planks |
शहतीर | Beam (supporting timber) |
कोहनी | Elbow joint (ship part) |
बल्लियां | Wooden logs/beams |
पटिये | Wooden boards |
रोशनदान | Skylight/ventilator |
लट्टे | Wooden strips |
गुंबद | Dome |
स्तंभ | Pillar/flagpole |
छाया | Shadow/shade |
थपेड़े | Strong winds/gusts |
तला | Bottom/base |